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वर्क स्ट्रेस ने ले ली युवा लड़की की जान, माँ के इमोशनल लेटर से सामने आ रही कॉर्पोरेट वर्ल्ड की सच्चाई

by PP Singh
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वर्क स्ट्रेस ने ले ली युवा लड़की की जान

वर्क स्ट्रेस ने ले ली युवा लड़की की जान, माँ के इमोशनल लेटर से सामने आ रही कॉर्पोरेट वर्ल्ड की सच्चाई

भारत को विश्व स्तर पर सबसे अधिक काम करने वाले वर्कफोर्सेस में से एक माना जाता है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के आधे वर्कफोर्सेस प्रत्येक सप्ताह 49 घंटे से अधिक काम करते हैं, जिससे भारत भूटान के बाद सबसे लंबे समय तक काम करने वाला दूसरा देश बन गया है।

ताजा उदाहरण है एक लीडिंग अकाउंटिंग फर्म में 26 वर्षीय भारतीय कर्मचारी की दुखद मौत। जिसने कॉर्पोरेट वातावरण में कार्यस्थल संस्कृति और एम्प्लोयी वेलफेयर के बारे में एक गंभीर बहस छेड़ दी है।

Ernst & Young (अर्न्स्ट एण्ड यंग) में चार्टर्ड अकाउंटेंट अन्ना सेबेस्टियन पेरायिल की फर्म में शामिल होने के चार महीने बाद ही मौत हो गई। उसके माता-पिता ने आरोप लगाया है कि उसकी नई नौकरी में “अत्यधिक काम के दबाव” के कारण उसके स्वास्थ्य पर असर पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई।

EY ने इस आरोप का खंडन करते हुए कहा है कि पेरायिल को किसी अन्य कर्मचारी की तरह ही काम दिया गया था और उन्हें इस बात पर विश्वास नहीं है कि काम के दबाव के कारण उसकी जान जा सकती है।

यंग एम्प्लोयी की मौत का कॉर्पोरेट वर्ल्ड में गहरा असर हुआ है, जिससे कई कॉरपोरेट्स और स्टार्ट-अप्स द्वारा प्रचारित “हसल कल्चर” पर चर्चा शुरू हो गई है। ये एक ऐसी कार्य नीति है, जो कर्मचारियों के हितों की कीमत पर उत्पादकता को प्राथमिकता देती है।

कुछ लोगों का तर्क है कि यह संस्कृति नवाचार और विकास को बढ़ावा देती है, कई लोग जुनून या महत्वाकांक्षा के कारण अतिरिक्त घंटे काम करना चुनते हैं। कुछ का कहना है कि कर्मचारियों पर अक्सर प्रबंधन द्वारा दबाव डाला जाता है, जिससे वे थक जाते हैं और बहुत हद तक उनके लाइफ स्टाइल पर भी फर्क पड़ता है।

पेरायिल की मौत तब सुर्खियों में आई जब उनकी मां अनीता ऑगस्टीन द्वारा EY को लिखा गया एक पत्र पिछले हफ्ते सोशल मीडिया पर वायरल हो गया। पत्र में, उन्होंने अपनी बेटी पर देर रात और सप्ताहांत में काम करने सहित काम पर अनुभव किए गए कथित दबावों का विवरण दिया, और EY से “अपनी कार्य संस्कृति पर विचार करने” और अपने कर्मचारियों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने के लिए कदम उठाने की अपील की।

उन्होंने लिखा, “अन्ना का अनुभव एक ऐसी कार्य संस्कृति पर प्रकाश डालता है जो इंसानों की उपेक्षा करते हुए अत्यधिक काम का महिमामंडन करती है।”
“अथक मांगें और अवास्तविक उम्मीदों को पूरा करने का दबाव ठीक नहीं है, और इससे हमें इतनी क्षमता वाली एक युवा महिला की जान गंवानी पड़ी, जिसे ओवरटाइम तक का भी पेमेंट नहीं किया गया था।”

EY के भारत प्रमुख राजीव मेमानी का कहना है कि कंपनी अपने कर्मचारियों की भलाई को “सर्वोच्च महत्व” देती है। उन्होंने लिंक्डइन पर एक पोस्ट में लिखा, “मैं पुष्टि करना चाहूंगा कि हमारे लोगों की भलाई मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता है और मैं व्यक्तिगत रूप से इस उद्देश्य का समर्थन करूंगा।”

पेरायिल की मौत ऐसी पहला इंसिडेंट नहीं है, जिसमें इंडियन वर्क कल्चर को जांच के दायरे लाया है। पिछले साल अक्टूबर में, इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति को भी अपने उस स्टेटमेंट की वजह से विरोध झेलना पड़ा था, जब उन्होंने कहा था कि युवा भारतीयों को देश की आर्थिक वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए सप्ताह में 70 घंटे काम करना चाहिए।

मेन्टल हेल्थ एक्सपर्ट और श्रम अधिकार कार्यकर्ताओं की मानें तो ऐसी मांगें नाजायज हैं और कर्मचारियों को बहुत ज्यादा तनाव में डालती हैं। अपने पत्र में पेरायिल की मां ने आरोप लगाया कि उनकी बेटी को EY में शामिल होने के तुरंत बाद चिंता होने लगी थी और नींद भी नहीं आती थी।

केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री मनसुख मांडविया ने कहा, “चाहे वो व्हाइट कॉलर नौकरी हो या कोई और नौकरी, किसी भी स्तर पर काम करने वाला या कर्मचारी, अगर देश के किसी भी नागरिक की मृत्यु होती है, तो जाहिर है हमें इसका दुख होता है।मामले की जांच चल रही है और जांच के आधार पर कदम उठाए जाएंगे।”

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The Industrial Employment (Standing Orders) Act, 1946: इस अधिनियम में कार्यस्थल पर अनुशासन बनाए रखने के प्रावधान हैं। इसमें ऐसे खंड शामिल हैं जिनके लिए नियोक्ताओं को कर्मचारियों के आचरण के संबंध में नियम निर्दिष्ट करने की आवश्यकता होती है, जिससे मानसिक उत्पीड़न सहित किसी भी प्रकार के उत्पीड़न पर रोक लगाई जा सके। इन नियमों के उल्लंघन के परिणामस्वरूप अनुशासनात्मक कार्रवाई या बर्खास्तगी हो सकती है, और कर्मचारी संबंधित श्रम अधिकारियों के माध्यम से निवारण की मांग कर सकते हैं। ये अधिनियम हालांकि सुनने और पढ़ने में काफी रोचक लग सकता है, लेकिन हकीकत तो कुछ और ही है। जिम्मेदार ओहदों पर बैठे लोग भी देश में युवाओं को कई कई घंटे काम करने की सलाह दे रहे हैं और इसके उलट वर्क प्रेशर से युवा जान दे रहे हैं। जब युवा ही मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं होंगे, तो देश की प्रोडक्टिविटी और ओवरआल ग्रोथ कैसे होगी? सोचने का विषय है। इस सवाल के साथ लोकल पत्रकार आपसे लेता है विदा.. जल्द हाजिर होंगे एक और बर्निंग सोशल इशू के साथ… तब तक ख्याल रखिये अपना और अपनों का जीवन के लिए रोजगार है, रोजगार के लिए जीवन नहीं

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