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ईश्वर क्या है और क्या ईश्वर प्राप्ति करना चाहिए?
मेरे अनुभव के अनुसार इस ब्रह्मांड में एक अद्वितीय तत्व है, यह तत्व हर वस्तु के भीतर व बाहर सभी जगह है! सभी निर्जीव वस्तुओं में अचेतन रूप में व सभी सजीव वस्तुओं में चेतन रूप में विराजमान है! यह तत्व नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है! यह नाश रहित अर्थात अविनाशी तत्व है! जैसे मकड़ी एक-एक तार से सुंदर जाल बुनती है उसी प्रकार प्रकृति ने इसी चेतन तत्व के धागों से इस सुंदर सृष्टि का सृजन किया है! इस तत्व को ही ईश्वर, भगवान, आत्मा, परमात्मा, मन, राम, कृष्ण, शिव, वाहेगुरु, अल्लाह आदि विभिन्न नामों से पुकारा या जाना जाता है क्योंकि यह तत्व हर प्राणी के भीतर है इसलिए जीव को ही शिव व शिव को ही जीव कहा जाता है अर्थात ईश्वर ही जीव है व जीव ही ईश्वर है। जब व्यक्ति “मैं कौन हूं?” विचार पर साधना पूर्ण करता है तो पाता है कि मैं ईश्वर हूं व जब ईश्वर कौन है? विचार लेकर साधना करता है तब वह जान पाता है कि मैं ही ईश्वर हूं! ईश्वर जीव से अलग कोई व्यक्तित्व नहीं है! हर जीव ही ईश्वर है व ईश्वर ही जीव है! बस सभी में जागरूकता का फर्क है! व्यक्ति ज्यों ज्यों साधना की गहराई में पहुंचता है त्यों त्यों जागरूकता अर्थात ज्ञान का उदय होता है व एक दिन अंधकार अर्थात अज्ञान पूर्ण रूप से खत्म होकर सत्य को प्रकट कर देता है व सत्य ही ईश्वर है।
ईश्वर प्राप्ति क्या है?
विभिन्न संतों द्वारा ईश्वर प्राप्ति के विभिन्न नाम रखे गए हैं जैसे आत्म साक्षात्कार, आत्मज्ञान, परमात्मा मिलन, निर्वाण या मोक्ष की स्थिति आदि! यह सभी एक ही स्थिति के नाम है! जब व्यक्ति विभिन्न साधनों द्वारा अपने मन को निर्मल कर लेता है तो यह पूर्ण निर्मल मन की स्थिति ही ईश्वर प्राप्ति है! जब तक मन में कामनाओं व वासानाओं रूपी मेल है तब तक बुद्धि सभी चीजों को विभिन्न रूपों में बांटती रहती है यह अज्ञान है व अज्ञान ही दुख, भ्रम व चिंता को जन्म देता है! लोभ, क्रोध, अभिमान, दुविधा, इर्ष्या, भय ये सब इसी अज्ञान की संतान है! साधनाओं द्वारा इस अज्ञान का समूल नाश करना ही साधक का लक्ष्य होता है। जब ज्ञान का उदय होता है तब मन पूर्ण पवित्र हो जाता है क्योंकि ज्ञान ही पवित्र करने वालों में श्रेष्ठ है व जब मन पूर्ण निर्मल हो जाता है वह स्थिति परम शांति दायक, परम आनंद दायक व परम ज्ञानी की स्थिति होती है। इसी को ही ईश्वर प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार या निर्वाण कहा जाता है!
ईश्वर प्राप्ति का महत्व
बुद्धि ने सत्य को विषय और वस्तु (द्वेत) में विभाजित कर दिया है जिससे हर पल विचार उत्पन्न हो रहे हैं एवं मनुष्य विचलित रहता है व भावनाओं में बंधा हुआ खंडित होता ही रहता है और लालच, मोह और तृष्णा की पकड़ उस पर बढ़ती रहती है! जन्म से वृद्धा अवस्था के चक्कर में बीमारी और मृत्यु का भय उसके मन के चारों ओर बनी दीवारों को और प्रबल करता जाता है। इसलिए इस भ्रम को ही दूर करना जरूरी है। जब एक बार ये द्वेतका भ्रम टूट गया तो व्यक्ति स्वतंत्र होकर जीने लगता है! वह पूर्ण एकाग्र व पूर्ण जागरूक होकर पूर्ण ज्ञान व परम आनंद को प्राप्त करता है। ईश्वर प्राप्ति या आत्म साक्षात्कार का रास्ता सब कुछ पाने का विज्ञान है! इस रास्ते पर चलने से व्यक्ति ना की अलौकिक जीवन में बल्कि भौतिक जीवन में भी कामयाबी की सर्वोत्तम ऊंचाइयों को छूता है! ईश्वर प्राप्ति या आत्म साक्षात्कार के प्रयास के लिए मनुष्य को ना तो घर छोड़ने की जरूरत है व ना ही व्यवसाय बदलने की जरूरत है क्योंकि यह यात्रा बाहरी नहीं भीतरी है! आप अपने गृहस्थी व व्यवसाय को करते हुए भी स्व अनुशासन की साधना द्वारा ईश्वर प्राप्ति या आत्म साक्षात्कार कर सकते हैं।
निष्कर्ष
व्यक्ति अज्ञान अवस्था में खुद को नहीं जान पा रहे हैं। इस दुर्लभ मनुष्य जीवन को पाकर जो इसी जीवन में मन को निर्मल करने की चेष्टा व प्रयास नहीं करता उसका जन्म लेना ही बेकार है। तुम खुद ही कल्पवृक्ष हो, आप जो चाहो वैसा पा सकते हो। आप अपने अभी तक के जीवन को ध्यान से देखो तो ऐसा लगेगा कि आपने आपका पूरा जीवन व्यर्थ ही गवा दिया है। चैक करो कि अब तक आपने क्या उल्लेखनीय कार्य किया है जिस पर आप खुद, आपका परिवार, आपका देश आप पर गर्व कर सके। इसलिए मेरे दोस्तों, हर बड़े काम की शुरुआत कभी ना कभी छोटे से ही करनी पड़ती है। इसलिए आप जो भी कार्य कर रहे हैं उसके साथ-साथ मन को निर्मल करने वाली इस शुभ यात्रा को शुरू करें व लोगों को भी इस यात्रा पर चलने के लिए उत्साहित करें।
उदाहरण
जब किसान अपने खेत की सिंचाई करना चाहता है, तो उसे किसी अन्य स्थान से पानी लाने की आवश्यकता नहीं होती। खेत के समीप जलाशय में पानी जमा हो जाता है, बीच में बांध होने के कारण खेत में पानी नहीं आ रहा है। किसान बांध को हटा देता है और गुरुत्वाकर्षण के नियम के अनुसार पानी अपने आप खेत में चला जाता है। इसी प्रकार सभी प्रकार की उन्नति और शक्ति सभी मनुष्य में पहले से ही निहित है। पूर्णता मनुष्य का स्वभाव है; केवल उसके द्वार बंद हैं, उसे अपना सच्चा मार्ग नहीं मिल रहा है। यदि कोई इस बाधा को पार कर सके, तो उसकी स्वाभाविक पूर्णता उसकी शक्ति के बल पर अभिव्यक्त होगी। और तब मनुष्य अपने भीतर पहले से ही विद्यमान शक्तियों को प्राप्त कर लेता है। जब यह बाधा दूर हो जाती है और प्रकृति अपनी अप्रतिबंधित गति को पुनः प्राप्त कर लेती है, तब जिन्हें हम पापी कहते हैं, वे भी संत बन जाते हैं। प्रकृति स्वयं हमें पूर्णता की ओर ले जा रही है, समय आने पर वह सभी को वहां ले जाएगी। धार्मिक होने के लिए जो भी अभ्यास और प्रयास हैं, वे केवल प्रतिबंधात्मक कार्य हैं – वे केवल बाधा को दूर करते हैं और इस प्रकार पूर्णता का द्वार खोलते हैं जो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है; जो हमारा स्वभाव है!
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