How to Save Relationships: रिश्तों में दूरियां क्यों बढ़ रही हैं? एक समाधान जो हर घर को जोड़ सकता है
ब्यूरो रिपोर्ट, लोकल पत्रकार। कहते हैं कि आसान नहीं होता रिश्तों को निभाना… खुद का दिल दुखाना पड़ता है यहां… तब मिलती है अपनों को खुशियां… आप इस बात से कितना इत्तेफाक (संयोग) रखते हैं। हमें भी कमेंट सेक्शन में बताइएगा। लेकिन उससे पहले उन रिश्तों के बारे में जरा जान लीजिए। जिनका जुबां पर… नाम तो होता है। लेकिन दिल में कद्र… क्यों नहीं होती। क्यों बचपन का साथ… बड़े होकर कहीं छूट जाता है। आपके इन्ही सवालों के जवाब देंगे हम आज के वीडियो में।
समाज यानि की सोसायटी… जिसका एक छोटा सा हिस्सा होता है। एक परिवार…जो एक घर में रहता है। जिसमें मां-बाप, पति-पत्नी और बच्चे होते हैं। अगर परिवार बड़ा है तो दादा-दादी,ताऊ-ताई, चाचा-चाची और उनके बच्चे भी शामिल हो जाते हैं। इन सबको मिलाकर बनती है एक ज्वाइंट फैमिली। जब तक हम नासमझ होते हैं तो हमें सब अपने लगते हैं। लेकिन जब हम समझदार यानि की बड़े हो जाते हैं तो उनके अपनेपन की अहमियत क्यों भूल जाते हैं। पहले तो शुरुआत हमारे परिवार से होती है। फिर वो… मैं और मेरा परिवार, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे पर आकर क्यों रूक जाती है। क्या होगा कि अगर हम अपनी जिंदगी से मैं शब्द को ही हटा दें। क्या होगा कि अगर हम कुछ चीजों को नजरअंदाज कर दें। क्या होगा कि अगर हम फल देने वाला पेड़ बन जाए। क्या होगा कि अगर हम खुद से पहले अपनों के बारे में सोचें। क्या होगा कि अगर हम जिनसे प्यार करते हैं उनसे थोड़ा मुस्कुराकर बात कर लें। शायद ये सब हम बचपन में करते हैं.. फिर बड़े होकर ऐसा क्या हो जाता है कि हम सिर्फ पेड़ बनना पसंद करते हैं.. ना कि फल देने वाला पेड़।
अपनों के लिए तो सर झुकाना भी पड़ता है तो कभी कभी सर कटवाना भी पड़ता है। लेकिन आज के मौजूदा दौर में सर कटवाना तो बहुत दूर की बात है कोई किसी के सामने झुकना भी पसंद नहीं करता। फिर चाहे वो सगे भाई हो या फिर बहन.. पति-पत्नी हो या फिर खुद के माता-पिता। रिश्तेदारों को तो आप छोड़ ही दीजिए। पहले के जमाने में शादियां 7 जन्मों का बंधन होती थी। लेकिन आज शादियां 7 या 17 साल तक ही टिक पाती हैं। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों..।। क्या उस वक्त के लोग अनपढ़ थे या फिर इस मौजूदा दौर के लोग जरूरत से ज्यादा पढ़े लिखे और समझदार हैं। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। दरअसल करंट सेनेरियो में हम अपने और अपनों के रिश्तों को अहमियत नहीं देते। पहले की जिंदगी में इतना सुकुन और ठहराव था। आज की जिंदगी मानों भाग रही है। मानों हमारे पास रुकने के लिए भी वक्त नहीं है। कभी हम खुद से भागते हैं तो कभी हम अपनी जिम्मेदारियों से। तो कभी हम अपनों से भागते हैं। कहां जाकर रुकना है ये भी हमें नहीं पता। लेकिन हम अपनी और अपने परिवार की इच्छाओं को पूरा करने के लिए बस भाग ही रहे हैं।
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ये बात सच है कि हमारे हाथों की उंगलिया बराबर नहीं होती तो भला हमारे परिवार के सदस्यों की सोच.. एक जैसी कैसे हो सकती है। देखा जाए तो ये बचपन में भी होता था। एक भाई को कुछ चाहिए तो दूसरे को कुछ और एक बहन को कुछ चाहिए तो दूसरी बहन को कुछ और। फिर भी हम साथ-साथ रहते हैं। अपनों के लिए दूसरों से भी भिड़ जाते हैं। लेकिन बड़े होकर क्यों मनमुटाव हो जाता है। क्यों खून के रिश्तों के बीच दिवारे खींच जाती है। क्या हमारा प्रैक्टिल होना सबसे बड़ी वजह है। क्या अपनों के लिए वक्त नहीं निकालना वजह है। अगर कहीं हमसे गलती होती है तो वो है प्यार के दो मीठे बोल। कहते हैं कि बात करने से बड़ी से बड़ी समस्या का भी हल निकल आता है। लेकिन ये ‘मैं’ हमें बात करने से खुद को रोकता है। पारिवारिक समस्याएं हर घर या यूं कहें कि घर-घर की कहानी है। कहीं पिता की बेटे से नहीं बनती। एक भाई की दूसरे भाई से नहीं बनती। सास की बहू से नहीं बनती। पहले तो ये समस्या चिंगारी भर होती है। फिर आग लगते देर नहीं लगती। इसलिए चिंगारी उठते ही उस पर हमें पानी डाल देना चाहिए। नहीं तो पारिवारिक कलह में बड़े से बड़े घर के भी तबाह होने में देर नहीं लगती।
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