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Shree Salasar Balaji Dham : मोहदास को पहले ही दर्शन दे चुके थे दाड़ी मूंछों वाले हनुमान जी
राजस्थान के चुरू में स्थित सालासर बालाजी की कई कहानी आपने सुनी होगी। पर आज जो हम आपको बताने जा रहें हैं यह कहानी आपने कभी नहीं सुनी होगी। बात उस समय की है जब मोहनदास महाराज सिर्फ सालासर के एक आम लड़े मोहन थे। बचपन से ही उनमें भक्तिभाव के गुण थे, लेकिन एक दिन जब मोहन अपने भानजे के साथ खेत में काम कर रहें थे तो बार बार उनके हाथ से गण्डासी छुट रही थी। मोहन के हाथ से बार-बार गण्डासी फेंके जाने का क्रम देखकर उदयराम ने निवेदन पूर्वक कहा कि मामाजी आपकी तबीयत ठीक नहीं है, तो आप थोड़ी देर के लिए लेटकर विश्राम कर लें। मोहन ने उदयराम से कहा कि कोई अलौकिक शक्ति मेरे हाथ से गण्डासी छीनकर फेंक रही है और मुझे यह आभास भी करा रही है कि तू इस सांसारिक जीवन के चक्र में मत फंस।
मोहन की शादी की तैयारियां हुई शुरू
उदयराम इस घटनाक्रम को समझ नहीं सके और पूरी बात उनकी माँ को बताई। कान्हीबाई ने सोचा कि मोहन सांसारिक जीवन से विरक्त न हो जाये, इसलिए जल्द इसको विवाह बंधन में बांध देना ही सही होगा। मां कान्हीबाई ने सस्ते में अनाज विक्रय कर मोहन के विवाह के लिए गहने, वस्त्र और आवश्यक सामान ने लिया तथा कान्हीबाई ने मोहन की सगाई भी कर दी।
मोहन ने की भविष्यवाणी
सगाई के बाद जब नाई को लड़की के घर शगुन देकर भेजा जा रहा था तब मोहन ने कहा इसका जाना व्यर्थ है, क्योंकि उस लड़की की मृत्यु हो चुकी है। यह सुनकर कान्हीबाई ने मोहन को समझाया कि ऐसे शुभ अवसर पर अशुभ नहीं बोलना चाहिए। इस पर मोहन बोले कि ‘इस संसार में जो बड़ी है वह माँ है, हम उम्र है वह बहिन है, छोटी है वह बेटी है, फिर विवाह किससे करूँ?’ ऐसी विरक्त बातें सुनने के बाद भी पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार नाई शगुन लेकर लड़की के घर पहुंचा तो अचंभित हो गया, क्यूँकि उस लडकी की अर्थी निकल रही थी। वापस आकर सपूरी घटना से कान्हीबाई को अवगत कराया।
मोहन से वैरागी बने मोहनदास
उपर्युक्त घटनाक्रम के बाद सभी समझ गये कि श्री हनुमान जी की कृपा से मोहन वचनसिद्ध हो गये। उसके बाद से मोहन ने सन्यास ग्रहण कर मोहनदास बन गये। उसके बाद मोहनदास ने जंगलों में जाकर साधना शुरू कर दी और खाना पीना सब छोड़ा दिया। कई बार उनके परिजन उन्हें ढूंढकर बात मनवाकर घर लाते पर कुछ दिन रुकने के बाद मोहनदास फिर जंगलों में चले जाते। यह घटनाक्रम चलता रहा और मोहनदास हनुमान भक्ति में लीन रहें। मोहनदास जी महाराज की हनुमत भक्ति से अत्यधिक प्रभावित होकर भानजे उदयराम ने घर से थोड़ी दूरी पर स्थित अपनी कृषि भूमि पर ध्यान, भक्ति एवं साधना हेतु आश्रम बनवा दिया। जिसमें संत मोहनदास जी अपने आराध्य श्री रामदूत हनुमान जी की भक्ति में तल्लीन रहने लगे।
दाड़ी मूंछ में हनुमान जी ने दिए दर्शन
एक दिन हनुमान जी साधु-वेश में जिनके मुख-मंडल पर दाड़ी और मूंछ तथा हाथ में छड़ी के साथ भक्त मोहनदास को दर्शन देने स्वयं उनके घर आये। फिर भी मोहनदास के प्रति अत्यधिक वात्सल्य भाव होने के कारण उन्हें आते देखकर तेज गति से वापिस जाने लगे।
लेकिन मोहनदास जी भी उनके पीछे दौड़ने लगे। तब दूर जंगल में जाकर साधु वेशधारी हनुमान जी रूके और छड़ी दिखाकर मोहन को धमकाते हुए कहा मेरा पीछा छोड़, बता तुझे क्या चाहिए? परन्तु बिना किसी कामना एवं विकार से अपने आराध्य द्वारा की जा रही लीला को देख उनकी बातों को सुना-अनसुना कर अपने प्रभु के चरणों से लिपट गये।
मोहनदासजी बोले ‘मैं जो चाहता था वो मिल गया। इसके अलावा कुछ और नहीं चाहिये”। उसके बाद हनुमान जी बोले कि “मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ, जो मांगना है मांगो- प्रसन्नता से दूँगा।” फिर मोहन बोले कि- यदि आप वापिस घर चले तो ही मुझे विश्वास होगा कि आप मुझ पर प्रसन्न हैं | तक हनुमान जी बोले कि मैं तुम्हारे साथ तभी घर चलूँगा, जब तुम मुझे “खाण्डयुक्त खीर का भोजन करवा सको और अछूती शैया पर विश्राम करवा सको।” जिसे मोहन ने अविलम्ब सहर्ष स्वीकार कर लिया। अपने भक्त को दिये वचनानुसार उनका आतिथ्य स्वीकार करते हुए भोजन एवं विश्राम करके आर्शीवाद देकर हनुमान जी अर्न्तध्यान हो गये।
असोटा गांव में खेत से निकली मूर्ति और पहुंची सालासर
कुछ समय बाद आसोटा ग्राम के किसान के खेत की जुताई का कार्य करते समय उसके हल का फाल किसी वस्तु में अटक जाने से बैलों को रोककर उस स्थान की खुदाई करने पर श्रीराम लक्ष्मण को कन्धों पर बैठे हुए श्री हनुमान जी महाराज की मूर्ति मिली। कृषक ने श्रद्धापूर्वक मूर्ति को साफ कर अपनी पत्नी को दिखाई। किसान की पत्नी ने बहुत ही भक्ति-भाव से मूर्ति को खेजड़ी के नीचे रखकर रोटी के चूरमे का भोग लगाया और ठाकुर को भी सूचना भेजी। ठाकुर मूर्ति को ससम्मान घर ले आये। ठाकुर को विश्राम के समय निद्रावस्था में आवाज सुनाई दी कि ‘मैं भक्त मोहनदास के लिये प्रकट हुआ हूँ, मुझे तुरन्त सालासर पहुँचाओ’। ठाकुर को तुरन्त ही कथित समस्त वृतान्त ग्रामवासियों को बताया तथा मूर्ति को बैलगाड़ी में विराजमान कर ग्राम्यजन के साथ भजन कीर्तन करते हुये सालासर के लिये रवाना हो गये।
जहां रूके बैल वहीं मुस्लिम कारगारों से बनवाया मंदिर
इधर अपने आराध्य की कृपा से मोहनदास जी को यह सब भान (ज्ञात) हो जाने के कारण, अपने प्रभु की अगवानी करने के लिए उन्होंने सालासर से प्रस्थान किया। मूर्ति सम्मानपूर्वक लाई गई। महात्मा मोहनदास जी ने कहा कि बैल जहाँ पर भी रूकेंगे, वहीं पर मूर्ति की स्थापना होगी। कुछ समय बाद बैल रेत के टीले पर जाकर रूक गये तो उसी पावन-पवित्र स्थान पर विक्रम संवत् 1811 श्रावण शुक्ला नवमी (सन् 1755) शनिवार के दिन श्री बालाजी महाराज की मूर्ति की स्थापना की गई। विक्रम संवत् 1815 (सन 1759) में नूर मोहम्मद व दाऊ नामक कारीगरों से मंदिर का निर्माण करवाया गया, जो कि साम्प्रदायिक सौहार्द एवं भाईचारे का अनूठा उदाहरण हैं।