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Dharm Gyan: भगवान श्रीकृष्ण की अनसुनी बातें, जो आपने कभी नहीं सुनी होगीं..
भगवान श्रीकृष्ण कौन थे और उन्होंने मृत्यु लोक में आ कर क्या कुछ किया यह बात सब जानते हैं, लेकिन आज हम आपको कुछ ऐसा बताएंगे जो आपने आज से पहले कभी नहीं सुना होगा। क्या आपको पता है भगवान श्रीकृष्ण के पास जो बांसुरी थी वो किसने और क्यों दी। उस बांसुरी का नाम क्या था और वो किसकी बनी हुई थी। चलिए हम आपको बताते हैं।
ऋषि की हड्डी से बनी बांसुरी! ये थे नाम…
पुराने ग्रंथों के अनुसार माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण को देखने के लिए सभी देवी-देवता धरती पर आए। इस दौरान भगवान शिव श्रीकृष्ण को उपहार में कुछ देने के लिए मंथन करने लगे। तब शिवजी ने ऋषि दधीचि की महाशक्तिशाली हड्डी को घिसकर बांसुरी का निर्माण किया और गोकुल पहुंचे। भगवान शिव ने उस बांसुरी को श्रीकृष्ण को भेंट की। कृष्ण की लंबी बांसुरी (बंशी) का नाम महानंदा या सम्मोहिनी था। इससे अधिक लंबी बांसुरी का नाम आकर्षिणी एवं सबसे बड़ी बांसुरी का नाम आनंदिनी था।
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भगवान शिव ने सिखाया बांसुरी बजाना
बांस से बनी बांसुरी उस शून्यता का प्रतिनिधित्व करती है जहां से संगीत निकलता है। जो सादगी और पवित्रता का प्रतीक है। यह शुद्ध और शुद्ध प्रेम के लिए कृष्ण के आशीर्वाद का प्रतीक है। भगवान कृष्ण एक विनम्र बांसुरी वादक की भूमिका निभाते हैं, जो अपनी दिव्य धुन से दिलों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। उस मुरली के माध्यम से सब श्रीकृष्ण के ध्यान में खो जातीं। भगवान श्री कृष्ण की मुरली शब्द ब्रह्मा का प्रतीक थी। मुरली वास्तव में पूर्वकाल में ब्रह्मा जी की मानस पुत्री सरस्वती जी थी। ब्रह्म संहिता जैसे अन्य ग्रंथों में बताया गया है कि बांसुरी भगवान शिव और देवी सरस्वती ने कृष्ण को दी थी और शिव ने कृष्ण को इसे बजाना भी सिखाया था।
आज भी सुनाई देती है इस वट वृक्ष में मुरली की धुन
भगवान कृष्ण की जन्मस्थली मथुरा में वैसे तो बहुत चमत्कारिक चीजें आपको देखने के लिए मिलेंगी, लेकिन इन सबके बीच सबसे आश्चर्यचकित करने वाला दृश्य होता है, बंसीवट में, जहां मान्यता है, कि वट वृक्ष से आज भी कान्हा की मुरली की मधुर धुन सुनाई देती है।
मथुरा से करीब 45 किलोमीटर दूर स्थित मांट क्षेत्र का बंसीवट, यहां भगवान कृष्ण अपनी गाय चराने जाते थे। गाय को बुलाने के लिए एक पेड़ पर बैठ कर बांसुरी बजाते थे। बांसुरी की मधुर स्वर लहरियों को सुन गाय आ जाया करती थीं। वैसे तो वृक्ष देखने में आम वृक्षों की तरह है, लेकिन जब इस वृक्ष से कान लगा कर ध्यान से सुना जाता है, तो इसमें से बांसुरी की आवाज सुनाई देती है। माना जाता है कि इस वृक्ष पर कृष्ण बांसुरी बजाते थे तो इस पेड़ में दिव्य ऊर्जा उत्पन्न हुई और उसी की वजह से इससे आज भी बांसुरी की वहीं मधुर तान सुनाई देती है।
ऊर्जा मापक यंत्र भी दे चुके हैं प्रमाण
बंशीवट के महंत का कहना है कि कई बार इस वट वृक्ष को मशीनों के द्वारा जांच कराई गयी है। ऊर्जा मापक यंत्रों ने भी इस वट वृक्ष में आज भी वो ऊर्जा है, जिसके कारण आवाज़ आती है। ये कहना बिलकुल भी संकोच नहीं होता है की भगवान आज भी इस पेड़ में हैं।
भगवान के हाथ में छह छिद्रों वाली बांसुरी है। छिद्र छह योग चक्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं। छह के ऊपर पहला छेद (सहस्रचक्र) या हजार पंखुड़ियों वाले कमल का प्रतिनिधित्व करता है। भगवान अपनी बांसुरी बजा रहे हैं, आंतरिक रूप से उन्मुख क्रियाओं (प्राणकर्म) को सक्रिय कर रहे हैं जो छह चक्रों को अवरुद्ध करते हैं।
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मोर पंख में भी है कुछ खास बात
मोर पंख भगवान कृष्ण की उर्जा का प्रतीक बन गया। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि यह उनकी सुंदरता और शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। हिंदू संस्कृति में मोर को पवित्रता और कृपा का प्रतीक माना जाता है। मोर पंख घर की नकारात्मक ऊर्जा को दूर करके सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार करता है। वास्तु शास्त्र के जानकारों के अनुसार रुपए-पैसे से जुड़े आर्थिक दिक्कतों को भी मोर पंख खत्म करता है।
एक ही मुद्र में खड़े दिखते हैं श्रीकृष्ण, सोमनाथ के जंगल में लगा था तीर
वह स्वयं को ‘सर्वव्यापी’ के रूप में व्यक्त करता है। कृष्ण हमेशा एक पैर ज़मीन पर मजबूती से रखकर खड़े होते हैं, दूसरा पैर क्रॉस करके, जैसे कि वह स्पर्श कर रहा हो, लेकिन वास्तव में स्पर्श नहीं कर रहा हो। यह कहीं और है. इसे ‘त्रिभंग्य’ मुद्रा कहा जाता है, जिसका अर्थ है पूर्ण संतुलन ।
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कहते हैं कि श्रीकृष्ण को जहां तीर लगा था, वो जगह गुजरात में सोमनाथ के पास स्थित है। इसे भालका तीर्थ के नाम से जाना जाता है। यहां हजारों साल पुराना पीपल का पेड़ भी स्थित है, जिसके नीचे लेटे हुए श्रीकृष्ण को तीर लगा था।
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